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मूवी रिव्यू- इंस्पेक्टर झेंडे: ना दबंग, ना सिंघम मनोज बाजपेयी बने सबसे अलग ‘इंस्पेक्टर’, जो कॉप फिल्म के सारे फॉर्मूले तोड़ देता है


52 मिनट पहले

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‘इंस्पेक्टर झेंडे’ सिर्फ एक क्राइम थ्रिलर नहीं, बल्कि एक सच्चे हीरो की कहानी है, जिसे पर्दे पर एक्टर मनोज बाजपेयी ने बड़े शानदार तरीके से उतारा है। इस फिल्म की लेंथ 1 घंटा 52 मिनट है। दैनिक भास्कर ने इस फिल्म को 5 में से 3.5 स्टार की रेटिंग दी है।

कहानी

इंस्पेक्टर झेंडे की कहानी असल पुलिस अफसर मधुकर बापुराव झेंडे के मशहूर केस से प्रेरित है। 1986 की मुंबई में सेट यह फिल्म उस अपराधी को पकड़ने की कवायद दिखाती है, जिसे लोग स्विमसूट किलर कहते थे यानी कार्ल भोजराज (जिम सर्भ)।

झेंडे (मनोज बाजपेयी) एक बेहद साधारण पुलिस अफसर हैं, जिनकी जिंदगी भी बाकी मिडिल क्लास लोगों जैसी है। जब खबर मिलती है कि कार्ल जेल से भाग निकला है, तो उसे पकड़ने का जिम्मा फिर उन्हीं को मिलता है। इसके बाद शुरू होती है मुंबई से गोवा तक की कॉमेडी भरी थ्रिलर रेस। जहां पुलिस और अपराधी का टकराव पारंपरिक हीरो-विलेन वाली लड़ाई नहीं, बल्कि मजाक और गलतियों से भरी दौड़-भाग बन जाता है।

डायरेक्शन और लेखन

डायरेक्टर चिन्मय डी मांडलेकर ने इस फिल्म को सच और मजाक के बीच संतुलित करने की कोशिश की है। शुरुआत में ही नैरेटर कहता है। यह फिल्म सच्ची कहानी पर आधारित है, जो देखने में झूठी लग सकती है। यहीं से अंदाजा हो जाता है कि कहानी हल्के-फुल्के व्यंग्य भरे लहजे में कही जाएगी।

चिन्मय का सबसे बड़ा प्लस यह है कि उन्होंने कहानी को ओवर-द-टॉप बनाने के बजाय बहुत जमीन से जोड़े रखा। पुलिसवालों को माचो हीरो नहीं, बल्कि आम इंसान की तरह दिखाया जो पहली फ्लाइट में डरते हैं, जिनके पास पैसा कम है, और जो गोवा के पब में जाकर रुशी कपूर और ओम राउत जैसे नाम रख लेते हैं। यही छोटी-छोटी बातें फिल्म को असली और मजेदार बनाती हैं।

लेकिन कमजोरी यह है कि फिल्म हर जगह बैलेंस नहीं बना पाई। कई बार कॉमेडी जबरदस्ती की लगती है और थ्रिलर वाले सीन पैरोडी जैसे हो जाते हैं। जिस धार और तीखापन की उम्मीद थी, वह कई जगह गायब है।

तकनीकी पहलू

सिनेमैटोग्राफी: विशाल सिन्हा का कैमरा 80 के दशक का मुंबई-गोवा दिखाने में सफल रहा। सेपिया टोन और लोकल लोकेशन्स फिल्म को असली स्वाद देते हैं।

प्रोडक्शन डिजाइन: राजेश चौधरी का काम तारीफ के लायक है। पुलिस थाने, चॉल, पुरानी कारें और गोवा के क्लब सब कुछ समयानुसार असली लगता है।

एडिटिंग: फिल्म की लंबाई (1 घंटा 52 मिनट) सही है, लेकिन कुछ जगह कटिंग ढीली लगती है।

बैकग्राउंड म्यूजिक: यही सबसे बड़ी निराशा है। एक अच्छी बीजीएम चेस सीन्स को रोमांचक बना सकती थी, लेकिन यहां म्यूजिक सपाट और फीका रह जाता है।

अभिनय

मनोज बाजपेयी- उनका सधा हुआ अभिनय और सूखी कॉमिक टाइमिंग फिल्म का सबसे बड़ा आकर्षण है।

जिम सर्भ- स्मार्ट और खतरनाक अपराधी के रोल में दमदार। उनका स्टाइल और लहजा फिल्म को क्लास देता है।

गिरिजा ओक- मासूम और रिलेटेबल पत्नी के किरदार में दिल जीत लेती हैं।

भालचंद्र कदम और अन्य मराठी कलाकार- अपनी कॉमिक टाइमिंग से हल्कापन बनाए रखते हैं।

फैसला

इंस्पेक्टर झेंडे मसाला एक्शन फिल्म नहीं है। यह एक अलग किस्म की कॉप-कॉमेडी है, जिसमें अपराधी भी स्टाइलिश है और पुलिसवाले भी इंसानी कमजोरियों के साथ नजर आते हैं। हंसी के पल हैं, लेकिन हर बार गूंजते नहीं। अगर आप मनोज बाजपेयी को एक अलग और मजेदार अंदाज में देखना चाहते हैं और हल्की-फुल्की थ्रिलर का मूड है, तो यह फिल्म एक बार देखने लायक है।

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